Wednesday, September 7, 2016

मंज़िल




बेताबी है, तन्हाई है, उफ ये कैसी मंजिल हैं...
चारो ओर सिर्फ मायूसी है ...जीना थोड़ा मुश्किल है...
खामोशी है, अंधियारा है, मजबुरी व्यापी साये है...
सुनी सुनी सी मेरी दुनिया है, वीरा़न सी मेरी महफिल है...

रुह को आराम कहाँ, चलो खुदा है खैर है...
इक जालिम के कब्जे मे ही सही, 
कैद नाजुक सा दिल मेरा है...
मेरी चाहत को दुनिया मे मुकां क्यो नहीं मिल पाया ...
क्या तुने मेरे दिल को बस दर्द के ही काबिल पाया है...
आएंगे न जाने कितनें तूफ़ान और किनारे तक
लहरों से लड़ती मेरी कश्ती  है... 
मेरी नजर से दुर साहिल है...

Sunday, April 24, 2016

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उसे अकेले रहना नापसंद था।
पर उसकी शख्सित ही इतनी कशिश भरी थी की वो शायद ही अकेले रहे।
दूर से मेरी निगाहें उसे ही ताक रही थी,
उसकी कमर के निचले हिस्से की मांशपेशियां, जिस नज़ाकत से रीढ़ को स्थिर रखे थी, मेरी नज़रों से ओझल न हो सकीं।

उसे देख कुछ कहने को चाह रही थी पर मेरें अल्फाज़ो को दुविधा रूपी जंजीरों ने कैद से आज़ाद ही न होने दिया।
उसे सामने देख... मेरे अलफ़ाज़ मेरा साथ छोड़ चले थे,
बजाय इसके की वो मेरें कुछ जवाब के इंतज़ार में हो,
उसे देख मेरें ख़्यालात चेहरे पर ऐसे भाव बनाए रखने की जद्दोजहद में थे जो अहमकाना न प्रतीत हो रहे।

मैं बस ताकता रहा उसे इस ईमानदारी से की वह दुनिया की सबसे बेहतरीन प्राकृतिक कृति है।
वो दूर खड़ी थी झिलमिलाता सा बैकग्राउंड आहिस्ता आहिस्ता टिम टिमाती रोशनी...
लोगो से घिरी फिर भी उसकी तन्हा नज़रें मुझे तलाशती,
भरी भीड़ को चिरती हुई महसूस कराती हुई कुछ अलग थलग सी।

अहसास कुछ यूँ हो रहा की उसकी कशिश का एक गैरमामूली सा हिस्सा किसी अनकहे से विचारो के ब्लैकहोल में खो सा गया हैं। 
--गौरव  कश्यप

Tuesday, March 22, 2016

लकड़ी

 

सुन लो ऐ दुनिया वालो यह जग बना है लकड़ी का
देख लो तमाशा लकड़ी का, जीते लकड़ी, मरते लकड़ी


बचपन जिसमे गुजारी वो पालना लकड़ी का
लड़कपन जिसे दोस्तों के साथ बिताया वो गुल्ली डंडा लकड़ी का
बड़ो की आश् पूरी करने स्कूल लकड़ी की पट्टी ले कर गए
छड़ी भी साली लकड़ी की जिससे गुरूजी ने पिछवाड़ा लाल किया
ख़ुशीनुमा मीठी बर्बादी का आगाजी मंडप भी लकड़ी का


वो पहली रात जो बीती उस सेज का आधार भी तो लकड़ी का
बूढ़े हुए तो सहारा लाठी साला वो भी तो लकड़ी का ही मिला
सन्नाटे में जब टें बोल गए तो चिता मिली वो भी लकड़ी की
 

सब लकड़ी ही है
अबे संसार बस एक घनघोर तमाशा लकड़ी का
 

--गौरव  कश्यप

Friday, January 15, 2016

शिकायत



मुझे बड़ी शिकायत थी
मैंने तो उससे कह दिया
तुम्हारी आँखे बातें बहुत करती हैं
बक बक.. बक बक ..बक बक

वो धमकी भी देती
जिस दिन ये तुमसे रूठ गयी तब पता चलेगा

प्यार के हसीं दिन थे
प्यार की दोपहरें..
प्यार भरीं मानसून
प्यार की जनवरी
प्यार की सर्दियाँ 

कभी कभी तो लगता हैं
जैसे ये सर्दियाँ बस आशिक़ों के लिए ही बनी हैं..
वो शॉल में लिपटी काज़ल से सजी आँखों से
मुझे एक टक देखती

ठण्ड में कंप कपाती उँगलियों से अदरक की चाय का प्याला और ज़ोर से पकड़ती
हवा के हर झोंके पर ठीठुरती
सर्द कांपते होंठो से गर्म धुंआ निकालती
पुरानी खिडक़ी में खड़े हो कर
घने कोहरे में देर तक मुझे ढूंढ़ती
मोनालिसा से कम कहाँ थी वो

मैं अचानक उसके शर्मीलें हाथों की छुअन पढ़ने लगा था
मैं अचानक ये  भी जानने लगा था 

मेरे दरवाजे पर सहमी सहमी दस्तकें किसका पता पूछती हैं
मैं अचानक उसकी बातूनी आँखों की खामोशियाँ पढ़ने लगा था

जरुरी भी था आखिर वो कुछ कहती ही कहा थी
दिल का रास्ता लंबा था
 

तो बस क्या हुआ पड़ाव भी बढ़ते गए
दो मुसाफिर मिलते थे
कभी किसी कार्ड की दुकान पे
कभी किसी कॉफ़ी शॉप पे
किसी समोसे की दुकान पे
कभी ब्लैक में टिकिट ले कर थिएटर की सीटों पे

फिर एक किसी इंटरवेल में 
मैंने कहा एक बेवकूफी भरा आईडिया आया है
उसने मेरे कंधे से सर उठा कर 
आसुंओं में नम् आँखों से कहा तुम्हारे सारे आईडिया बेवकूफी भरे ही होते हैं 

गौरव कश्यप

Tuesday, January 12, 2016

THE HAWKS


Hawks spends most of their time in AIR
People thinks they are Hunters
just riding the wind looking foe prey
But in reality they are really quit and gentle even secretive
They just like to ride alone

Who are you the people of HAWK..

Saturday, January 2, 2016

तन्हा


तन्हा लोगो के शहर में तन्हा रहता हूँ मैं....
कभी खुद से छुपना चाहता हूँ
कभी सिर्फ खुद से मिलना चाहता हूँ
देर से सोता हूँ
देर से उठता हूँ
कोई खाना बना जाता है
कोई कपड़े धो देता है
मैं बस चलता रहता हूँ
ज़िन्दगी की कन्वेयर बेल्ट पे
एअरपोर्ट पे खो गए किसी सूटकेस की तरह अकेला
कभी कभी बड़ी खूबसूरत लगती है ये तन्हाई
कभी कभी जैसे कातिल की निगाहों से मुझसे बात करती है

शिकायत बहुत करता हूँ मैं
आज बैठा हूँ खिडक़ी के पास अदरक की चाय का प्याला लेकर
जाने कितने सालों से इतने इत्मिनान से अपने साथ ही नहीं बैठा
जाने कितने दिनों बाद अपने दोस्त इस शहर की आवाजें सुन रहा हूँ 
 सड़क पे बेतरति.. बेमक़सद चलती गाड़ियाँ
बीवियों का आर्डर की जल्दी आना बच्चों की हँसी 

लगता हैं कितनी सदियाँ बीत गयी
मुझ जैसे लेट लतीफ़ आलसियों ने सुबह का हिंदुस्तान तो जैसे देखा ही नहीं

घर से दूर सा हो गया हूँ अक्सर फोन पे बात करता हूँ
माँ ने SMS करना भी सिख लिया हैं
कभी कभी अचानक फ़ोन देख मुस्करा पड़ता हूँ
माँ का मैसेज आता है "Beta How are You?"..
अपना मुल्क सचमुच बदल रहा है मेरे दोस्त
माँ का SMS अंग्रेजी में 

एक टाइम था जब न फ़ोन था.. ना SMS
डॉ की क्लीनिक की तरह 2 मिनट बात करने के लिए PCO में इन्तजार करना पड़ता था
एक समय वो भी था जब अंतर्देशीय पत्र (Inland latter) पे चिट्ठी लिखा करते थे
अक्सर सोचता हूँ क्या मैं इतना बदल गया
कि ये दुनिया ही बदल गयी
मैं अगर अपने माज़ी (Past) से मिलता
और उससे कुछ कहता कि मेरी बीती हुई ज़िन्दगी में कुछ बदल दे तो क्या होता ?
 --गौरव कश्यप