Sunday, April 24, 2016

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उसे अकेले रहना नापसंद था।
पर उसकी शख्सित ही इतनी कशिश भरी थी की वो शायद ही अकेले रहे।
दूर से मेरी निगाहें उसे ही ताक रही थी,
उसकी कमर के निचले हिस्से की मांशपेशियां, जिस नज़ाकत से रीढ़ को स्थिर रखे थी, मेरी नज़रों से ओझल न हो सकीं।

उसे देख कुछ कहने को चाह रही थी पर मेरें अल्फाज़ो को दुविधा रूपी जंजीरों ने कैद से आज़ाद ही न होने दिया।
उसे सामने देख... मेरे अलफ़ाज़ मेरा साथ छोड़ चले थे,
बजाय इसके की वो मेरें कुछ जवाब के इंतज़ार में हो,
उसे देख मेरें ख़्यालात चेहरे पर ऐसे भाव बनाए रखने की जद्दोजहद में थे जो अहमकाना न प्रतीत हो रहे।

मैं बस ताकता रहा उसे इस ईमानदारी से की वह दुनिया की सबसे बेहतरीन प्राकृतिक कृति है।
वो दूर खड़ी थी झिलमिलाता सा बैकग्राउंड आहिस्ता आहिस्ता टिम टिमाती रोशनी...
लोगो से घिरी फिर भी उसकी तन्हा नज़रें मुझे तलाशती,
भरी भीड़ को चिरती हुई महसूस कराती हुई कुछ अलग थलग सी।

अहसास कुछ यूँ हो रहा की उसकी कशिश का एक गैरमामूली सा हिस्सा किसी अनकहे से विचारो के ब्लैकहोल में खो सा गया हैं। 
--गौरव  कश्यप