मेरी ग़ैर मौजुदगी ने मुझे नहीं, उसका मेरे प्रति नज़रिया बदल दिया था।
इक पल लगा शायद मैं बदल गया, उसे इस तरह बेपरवाह देख सख्त चिढ़ भी होती,
पर एक लम्हा सुकून का भी था "तू खुश तो है"।
आईने में अपने अक्स को तसल्ली तो दे पता कि ख़ुश तो है।
मैं उसकी कायम शान, निराली शख्सियत और अनोखे हुस्न की तारीफ़ तो कर पाया।
इक बेईज़्ज़त हुए आशिक़ की चोट खाई खुद्दारी और गुस्से के रेशे आज भी मौजूद हैं,
ये नाकारा जज़्बात उससे दूर रहने में मददगार भी रहें।
फिर भी उसकी ख़ैरियत को ले कर फ़िक्रमंद क्यों रहता हूँ ?
शायद किसी किस्म की अहमक़ाना उम्मीद अब तक जकड़ें हुए है।
बातचीत में दुरी बरतने की लगातार जारी कोशिश,
एक ऐसा संघर्ष प्रतीत होती
किसी नशे की लत छोड़ने से भी दुश्वार
खुद को मशरुफ रखने की मेरी साजिश यही कि
उसकी फ़िक्रों को भुला सकूंगा जो घुन की तरह खाये जा रही थी।
कुछ यादें कोकिन की तरह होती है,
वर्तमान से मुँह मोड़ हम भविष्य भी नकारते हैं और नतीजे बड़े भयंकर से सामने आते हैं।
एक ऐसी लड़की जो मिलने तक से इंकार करे
जिस निश्चितता के साथ उसने मुझे अपने भूतकाल में संजोया था
उसके कहे अल्फाजों में अब गहराई खोज पाना भी लगभग नामुमकिन सा प्रतीत हो......
वह तो ज़वाब देना भी जरुरी नहीं समझती ,
फैसला करना मुश्किल होता जा रहा था कि
उसे पाने की कोशिश जारी रखूँ ,
या उसके कथित आत्मसम्मान को सलाम कर चला जाऊं।
यह भी एक इम्तेहान ही रहा
जिसमे नाक़ाम रहा।
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