Tuesday, December 17, 2013
Monday, September 2, 2013
प्रगति
मसला न प्यार का हैं , न पॉवर का , न किसान का ,
न ज़मीन का, न गाँव कस्बे या शहर का … मसला है देश का
देश लोगो से बनता है, लोग, मतलब समूह … भीड़
और भीड़ का कोई चेहरा नहीं होता,
भीड़ को चेहरा देता है उसका नेता …….
तो जो चेहरा मेरा है , वही मेरे नेता का और मेरे देश का होगा
जब मैं आध्यात्मिक था तो देशभक्त और देशपुत्र था
जब विलासी हुआ तो राजा मिहिर बना
कमज़ोर पड़ा तो सिकंदर और टुटा तो बाबर कहलाया गया
जब मैंने व्यापार किया तो देश गुलाम हुआ ,
और बागी बना तो देश आज़ाद हुआ
जब आज़ाद हुआ तो मैं स्वार्थी हुआ …
स्वार्थी तो भ्रष्ट
भ्रष्ट तो धनवान
धनवान तो सफल
सफल तो प्रगतिवान
प्रगति ……. देश की प्रगति
देश की प्रगति हेतु मेरी व्यक्तिगत प्रगति अनिवार्य है
गौरव कश्यप
Monday, April 1, 2013
सपनो का लोकपाल
Dreamer of Dreams |
जब भी मैं इन बदसूरत खेतो की ...
बदमस्त फसलो को हवा में झूमते देखता हूँ ...
तो मेरा एक सपना मेरी पलके नोचने लगता है ...
मेरा सपना ...
बड़ी बड़ी दैत्यकाय मशीने , बुलडोज़र ..स्टोन क्रशर , इंडस्ट्रियल क्रेने ...
हवा में उड़ता हुआ सुखा सीमेंट ....हज़ारो की तादाद में मौजूद मजदुर ...
बादल उड़ाते कारखाने , भभकती भट्टिया , धधकती चिमनियाँ ...
दायें ... बाएं ऒर वर्कर्स के घरौंदे ...
और सामने धुप उछालती रौशनी में नहाई ...
ऊँची-ऊँची गगनचुंबी शौपिंग मॉल की इमारतें ...
मुल्तिप्लेक्सो में फिल्मो के रंगीन पोस्टर्स ...
फैक्टरी ... कंपनियो में एक हाथ से पगार देकर ...
शौपिंग मॉलो में दुसरे हाथ से वापस बटोर रहे हम ...
शाम के धुलके में , फैक्टरी की मीनारी चिमनियों से उठता धुंआ ...
धुंआ ... आसमान में हमारी नश्लो की दास्ताँ लिख रहा होगा ...
-गौरव कश्यप
Friday, March 8, 2013
मेरी
गीत प्यार के गाने लगी मेरी......
मैं जानता हूँ "अंजाम-ए-मोहब्बत" पे
ज़िन्दगी धोखा खाने लगी मेरी ....
भयभीत हो तूफानी थपेडो से कश्ती,
साहिल से टकराने लगी मेरी,
करने बहुत से थे गिले शिकवे,
पर जुबां लड़खड़ाने लगी मेरी ..
बहुत अरसे से मायूस था दिल,
लो तमन्ना फिर मुस्कुराने लगी।।
Thursday, March 7, 2013
@ मजबूर खुदा @
रोज़ उठते धुएं की कालिख से ,
उस तरफ आसमां का एक टुकड़ा सारा दिन अफ्सिया सा रहता है....
उसके नीचे न कोई सजदा करे ,
सर झुका के अब ज़मीं पे रखने से अब खुदा पाँव खींच लेता है......
कूड़े करकट की ढेरियो पे ,
अभी भी ठन्डे लाशो के सर सुलगते से पाए मैंने है ....
टांगो.. बाहों..की हड्डियों के लिए,
जीने की आस में लड़ते रहते भूखे चौपाये है....
और जिसने पहले दांत मारे है,
हड्डी बोटी - बोटी पे हक उसी का है .....
कमबख्त मज़हब के गुलाम पूछते है, अब की कुदाल पहले किसने मारी थी ...
कोई कहता है एक मस्जिद थी .. कोई कहता है एक मंदिर था ..
खुदा भी अब सर झुका के अब ज़मीं पे रखने से अब खुदा पाँव खींच लेता है ......
इसको भी अब यकीं नहीं आता की .. कभी इस ज़मीन पर उसका भी एक घर था।
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