Thursday, March 7, 2013

@ मजबूर खुदा @



रोज़ उठते धुएं की कालिख से ,
उस तरफ आसमां का एक टुकड़ा सारा दिन अफ्सिया सा रहता है....
उसके नीचे न कोई सजदा करे ,
सर झुका के अब ज़मीं पे रखने से अब खुदा पाँव खींच लेता है......
कूड़े करकट की ढेरियो पे ,
अभी भी ठन्डे लाशो के सर सुलगते से पाए मैंने है ....

टांगो.. बाहों..की हड्डियों के लिए,
जीने की आस में लड़ते रहते भूखे चौपाये है.... 

और जिसने पहले दांत मारे है,
   हड्डी बोटी - बोटी पे हक उसी का है .....

कमबख्त मज़हब के गुलाम पूछते है, अब की कुदाल पहले किसने मारी थी ...
कोई कहता है एक मस्जिद थी .. कोई कहता है एक मंदिर था ..
खुदा भी अब सर झुका के अब ज़मीं पे रखने से अब खुदा पाँव खींच लेता है ......
इसको भी अब यकीं नहीं आता की .. कभी इस ज़मीन पर उसका भी एक घर था।

3 comments:

  1. Man ki baat sundar Larson se bahAut khoob sajayA hain..... Carry on with your words....,eagerly waiting :)

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