Friday, January 15, 2016

शिकायत



मुझे बड़ी शिकायत थी
मैंने तो उससे कह दिया
तुम्हारी आँखे बातें बहुत करती हैं
बक बक.. बक बक ..बक बक

वो धमकी भी देती
जिस दिन ये तुमसे रूठ गयी तब पता चलेगा

प्यार के हसीं दिन थे
प्यार की दोपहरें..
प्यार भरीं मानसून
प्यार की जनवरी
प्यार की सर्दियाँ 

कभी कभी तो लगता हैं
जैसे ये सर्दियाँ बस आशिक़ों के लिए ही बनी हैं..
वो शॉल में लिपटी काज़ल से सजी आँखों से
मुझे एक टक देखती

ठण्ड में कंप कपाती उँगलियों से अदरक की चाय का प्याला और ज़ोर से पकड़ती
हवा के हर झोंके पर ठीठुरती
सर्द कांपते होंठो से गर्म धुंआ निकालती
पुरानी खिडक़ी में खड़े हो कर
घने कोहरे में देर तक मुझे ढूंढ़ती
मोनालिसा से कम कहाँ थी वो

मैं अचानक उसके शर्मीलें हाथों की छुअन पढ़ने लगा था
मैं अचानक ये  भी जानने लगा था 

मेरे दरवाजे पर सहमी सहमी दस्तकें किसका पता पूछती हैं
मैं अचानक उसकी बातूनी आँखों की खामोशियाँ पढ़ने लगा था

जरुरी भी था आखिर वो कुछ कहती ही कहा थी
दिल का रास्ता लंबा था
 

तो बस क्या हुआ पड़ाव भी बढ़ते गए
दो मुसाफिर मिलते थे
कभी किसी कार्ड की दुकान पे
कभी किसी कॉफ़ी शॉप पे
किसी समोसे की दुकान पे
कभी ब्लैक में टिकिट ले कर थिएटर की सीटों पे

फिर एक किसी इंटरवेल में 
मैंने कहा एक बेवकूफी भरा आईडिया आया है
उसने मेरे कंधे से सर उठा कर 
आसुंओं में नम् आँखों से कहा तुम्हारे सारे आईडिया बेवकूफी भरे ही होते हैं 

गौरव कश्यप

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