Thursday, May 10, 2018

हक़ीक़त

 
मेरे लिए बस ये जानना जरुरी रह गया था की 
उस महिन झिल्लीनुमा लक़ीर को पार क्यों न कर सका
जिसके जरिए वो अपने चित्त की पहरेदारी कर रही हैं
सारी सीधी-सादी कोशिशें ठुकरा दी गयीं
महीना बीत गया बात न हुई
मैसेज का आवागमन तो बहुत दूर की बात
अब भी उसके प्रति मेरे लगन में कोई कमी ना आयी। 
उसकी नज़रों से देखने की नाक़ाम सी कोशिश करूँ
तो आँखें चौंधियाँ सी जाती
दूर तक फैले धुंधले नज़ारें जड़ कर दिए करते
सारी कोशिशें किसी हद तक नाकाम ही रहीं 
शायद अब समझने लगा था कि मैं नहीं जानता
बहुत से अहम  मुद्दों में... मैं कहाँ खड़ा हुँ,
मैं खुद नहीं जानता था कि मैं कहाँ का हूँ, कहाँ का नहीं 
जब उसने वज़ह मांगी तो देने को ज़हन ने कुछ ठोस न दिया
शायद यही वज़ह रही उससे दूर भागने कोशिश भी नाकामी के साथ करता रहा हूँ।
जहाँ तक मेरा सवाल था,
एक बहुत बड़े बदलाव की दहलीज़ पर खड़ा था
एक आखिरी बहाने की दरकरार थी, 
सिगरेट सुलगती गयी, राख प्लेट में जमती गयी।
शायद कुछ कमी न रह गयी हो
वो भरोसा कर सकती थी
शायद करती भी हो मुझसे समझने में कहीं कुछ चूक हो गयी हो,
वो बातें दोहराने की आदि जो न थी
ख़ास कर मुझसे कहे अपने अल्फ़ाज़ों के प्रति तो कतई नहीं।
सब कुछ तो है सामने, पर एक परेशानी भी है,
तन्हाई जो हकीकत हैं
मैं लोगो के बीच हो कर भी अकेला था।

No comments:

Post a Comment